“नारी केवल जननी नहीं, वह चेतना है।
उसके बिना समाज नहीं, केवल व्यवस्था बचती है।”
अमित गुप्ता
यह समाज बड़ी चतुराई से अपनी विकृत परंपराओं की शॉल ओढ़े बैठा है — जिसमें नारी का अस्तित्व केवल एक भूमिका तक सीमित कर दिया गया है। एक ऐसी सामाजिक संरचना, जहाँ स्त्री के जन्म को ही बोझ समझा जाता है, और यदि वह जन्म ले भी ले, तो जीवन जीने का अधिकार उसे उधार में मिलता है। विडंबना यह है कि जिसे प्रकृति ने सृजन का स्रोत बनाया, उसी को समाज ने निर्णयहीन बना दिया। नारी जो जीवन देती है, उसी को समाज दो घरों का नाम देकर दरअसल घरविहीन बना देता है। यह कोई भूल नहीं, यह एक योजनाबद्ध मानसिकता है — जिसमें स्त्री का हर प्रयास, हर संबंध, हर समर्पण बस एक परछाई बनकर रह जाता है।
स्त्री को दो घर दिए गए — एक मायका और एक ससुराल। पर विडंबना देखिए, दोनों ही घर उसके नहीं होते। मायका उसे पराया धन मानकर विदा कर देता है और ससुराल उसे ‘पराई’ समझकर स्वीकार करता है, अपनाता नहीं। ऐसे में उसका अपना घर कहां है? कौन सा आँगन है जहाँ वह निसंकोच हँस सके, जहाँ उसके आंसुओं की कोई कीमत हो?
जब पुरुष को जन्म लेते ही स्थायित्व मिल जाता है — उसका घर, उसका नाम, उसका अधिकार — वहीं स्त्री को हर बार खुद को साबित करना होता है, हर बार अपनाया जाना होता है। क्या यही न्याय है? क्या यही सभ्यता है?
हम उसी समाज की बात कर रहे हैं जो कन्याओं को पूजता है, देवी का स्थान देता है, ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते’ की बात करता है, और फिर वही समाज बलात्कार की वीभत्स घटनाओं को जन्म देता है। जहाँ एक ओर ‘कन्या पूजन’ होता है, वहीं दूसरी ओर हजारों बच्चियाँ, स्त्रियाँ, हर दिन, हर क्षण, किसी न किसी रूप में शोषित होती हैं — शारीरिक रूप से, मानसिक रूप से, सामाजिक रूप से।
पुरुष की कामनाएँ जब उसकी सोच पर हावी हो जाती हैं, तो वह नारी को एक इंसान नहीं, वस्तु समझने लगता है। उसके ‘ना’ का कोई अर्थ नहीं रह जाता। वह उसका शरीर चाहता है, उसकी आत्मा को कुचलकर। और जब हवस शांत हो जाती है, तो उसे मौत की नींद सुला देता है — बगैर पछतावे, बगैर दंड के।
यह कैसा देश है जहाँ पूजा भी होती है और बलात्कार भी? जहाँ एक ही नारी को मंदिर में फूल चढ़ाकर पूजते हैं और अगले ही क्षण उसे सड़कों पर घसीटते हैं? क्या वह पत्थर है, जिसे कभी सिर झुकाकर छुआ जाए और कभी पैर की ठोकर मारी जाए?
समाज को अब मौन नहीं रहना चाहिए। यह समय है उस सोच को बदलने का, जो महिलाओं को दो घर देकर भी बेघर बना रही है। हमें यह समझना होगा कि नारी कोई उपभोग की वस्तु नहीं, वह जीवन की संवेदना है। वह माँ है, बेटी है, बहन है, पत्नी है, और सबसे पहले, एक इंसान है।
जिस दिन हम उसे एक पूर्ण मनुष्य के रूप में स्वीकार लेंगे, उस दिन समाज वाकई सभ्य कहलाएगा। तब नारी को दो घर नहीं, एक सम्मानपूर्ण अस्तित्व मिलेगा — जिसमें वह खुद को सुरक्षित, प्रेमपूर्ण और स्वतंत्र महसूस कर सके।
यह लेख एक अपील है — उन सभी माता-पिताओं से, शिक्षकों से, नेताओं से, और सबसे बढ़कर, आम नागरिकों से — कि अब नारी को सहानुभूति नहीं, समानता चाहिए। अब उसे दया नहीं, अधिकार चाहिए। और अब उसे दो घर नहीं, अपना घर चाहिए।
अब नारी के आँसू शब्द बनें, और समाज की चुप्पी चीख में बदल जाए।
अमित गुप्ता