अंजान जी : मुख्य संपादक सह प्रकाशक
वर्षों बाद देवताओं और असुरों के बीच छिड़े ऐतिहासिक देवासुर संग्राम में एक बार फिर देवताओं का परचम लहराया। यह युद्ध केवल प्रतीकात्मक नहीं था, बल्कि इसमें रणनीति, धैर्य और पराक्रम की ऐसी मिसाल देखने को मिली जिसने देवलोक के इतिहास में नया अध्याय जोड़ दिया। इस संग्राम में यदुवंश से निकले एक तेजतर्रार और घातक गेंदबाज़ कुलदीप यादव ने ऐसा प्रहार किया कि असुरों की पूरी सेना बिखरकर रह गई। उसकी आग उगलती गेंदों ने एक के बाद एक राक्षस योद्धाओं को मैदान से बाहर कर दिया और पूरी असुरी सेना मात्र 146 रनों पर सिमट गई। यह प्रदर्शन न केवल कौशल का प्रतीक था, बल्कि देवसेना के मनोबल को भी नई ऊर्जा देने वाला साबित हुआ।
देवताओं की इस शानदार गेंदबाज़ी के बावजूद युद्ध का पलड़ा कुछ समय के लिए असुरों की ओर झुकता दिखा। दूसरी पारी की शुरुआत में असुरों ने जोरदार पलटवार किया। उनके प्रचंड हमले में देवसेना का सेनानायक मात्र 7 रनों पर धराशायी हो गया। उसके बाद एक घुड़सवार योद्धा 10 रनों पर, दूसरा रनों रन पर, तीसरा 77 रनों पर और चौथा 135 रनों पर वीरगति को प्राप्त हुआ। इस क्षण ने देवताओं को संकट में डाल दिया, लेकिन देवलोक के दृढ़ योद्धा तिलक वर्मा ने अदम्य धैर्य और सूझबूझ के साथ मोर्चा संभाला। उनकी रणनीतिक सूझ और शांत नेतृत्व के बल पर देवसेना ने धीरे-धीरे युद्ध की दिशा पलट दी और विजय की ओर अग्रसर हुई।
आख़िरकार यह रोमांचक संग्राम देवताओं के पक्ष में समाप्त हुआ। देवलोक के मस्तक पर जीत का तिलक सजा और असुरों की पराजय ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि जब धैर्य, संगठन और समर्पण एक साथ हों, तो कोई भी युद्ध जीता जा सकता है, चाहे प्रतिद्वंदी कितना भी प्रचंड क्यों न हो। यह संग्राम केवल एक खेल नहीं था, बल्कि एक प्रेरणादायक संदेश था कि असली विजय उसी की होती है जो अंत तक अडिग रहे। इस युद्ध को पहलगाम में हुए असुरी हमले के रूप में भी देखा जा सकता है, जहाँ देवसेना ने साहस और रणनीति से विजय प्राप्त की।