संजय कुमार बिनीत : राजनीतिक विश्लेषक
चुनावी रणनीतिकार से नेता बने प्रशांत किशोर (पीके) बिहार की राजनीति में एक बड़ा बदलाव लाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उनकी राह दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल जितनी सीधी नहीं है। केजरीवाल को जहाँ भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और अन्ना हजारे जैसा नैतिक समर्थन मिला था, वहीं पीके को बिहार में वैसा माहौल नहीं मिल पाया है। उन्होंने अपनी यात्रा की शुरुआत विकास के मुद्दों से की थी, लेकिन अब उनका ध्यान स्पष्ट रूप से जाति और धार्मिक समीकरणों पर केंद्रित होता दिख रहा है। आगामी चुनाव ही यह तय करेंगे कि उनका यह प्रयोग सफल होता है या नहीं, और यह एनडीए तथा महागठबंधन में से किस मुख्य गठबंधन को अधिक नुकसान पहुँचाएगा।
भ्रष्टाचार के आरोप और ‘केजरीवाल मॉडल’ की नकल
पीके ने अपनी रणनीति में केजरीवाल के मॉडल का अनुसरण करते हुए बिहार की एनडीए सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए। इसी क्रम में उन्होंने जदयू के वरिष्ठ नेता अशोक चौधरी और भाजपा के वरिष्ठ नेता संजय जायसवाल को निशाना बनाया, जिसके जवाब में इन नेताओं ने पीके पर करोड़ों रुपये की मानहानि का दावा ठोंक दिया है। महागठबंधन (आरजेडी) के लिए यह स्थिति अप्रत्यक्ष रूप से फायदेमंद साबित हुई, क्योंकि लालू यादव से जुड़े भ्रष्टाचार के मामलों के कारण वे खुद सरकार को घेरने की स्थिति में नहीं थे, इसलिए पीके का मुखर होना उन्हें राहत दे गया। दूसरी ओर, एनडीए, जिसके 20 साल के कार्यकाल में बड़े भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे थे, पीके के इन सीधे आरोपों से कुछ असहज हो गया है। यदि पीके को कानूनी दाँवपेंच से बचने के लिए माफी माँगनी पड़ती है, तो इसे उनकी राजनीति में अरविंद केजरीवाल की रणनीति की शुरुआत माना जाएगा।
‘मुस्लिम कार्ड’ से महागठबंधन के वोटबैंक को चुनौती
भ्रष्टाचार के मुद्दे पर एनडीए को घेरने के बाद, प्रशांत किशोर ने ‘मुस्लिम कार्ड’ खेलकर महागठबंधन को सीधी चुनौती दी। उन्होंने आरोप लगाया कि आरजेडी ने मुस्लिम समुदाय को केवल वोट बैंक समझा और उन्हें उचित राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं दिया। पीके ने 40 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार उतारने की घोषणा की है। उन्होंने महागठबंधन को चुनौती देते हुए कहा कि यदि वे मुस्लिम हितैषी हैं तो जहाँ उनकी पार्टी के उम्मीदवार हों, वहाँ महागठबंधन अपने उम्मीदवार न उतारे। यह चुनौती सीधे तौर पर आरजेडी के पारंपरिक मुस्लिम-यादव (MY) समीकरण पर प्रहार करती है, जो 1990 के दशक से उनका मुख्य आधार रहा है। सीमांचल में ओवैसी की एआईएमआईएम की मजबूत उपस्थिति और अब पीके की इस पहल से महागठबंधन के मुस्लिम वोटों के बँटवारे की आशंका बढ़ गई है।
एनडीए के जातीय समीकरणों पर भी प्रहार
पीके की रणनीति सिर्फ महागठबंधन के मुस्लिम वोटों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एनडीए के जातीय आधार को भी प्रभावित करने का प्रयास कर रही है। 2005 से नीतीश कुमार ने लव-कुश (कुर्मी-कोइरी) और अति पिछड़ा वर्ग के समीकरणों को साधकर सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखी है। पीके ने अपनी जातीय रणनीति के तहत आबादी के हिसाब से 40 मुस्लिम उम्मीदवारों के अलावा लगभग 70 अति पिछड़ा उम्मीदवार उतारने की योजना बनाई है, जिससे कुल 110 सीटें प्रभावित हो सकती हैं। विश्लेषकों का मानना है कि इस रणनीति के जरिए पीके ने आरजेडी से 40 सीटों और जदयू से 110 सीटों को लेकर राजनीतिक मोलभाव करने की कोशिश की है।
राजनीतिक पंडितों का मत है कि बिहार चुनाव का परिणाम अंततः दोनों प्रमुख गठबंधनों—एनडीए और महागठबंधन—के पारंपरिक जातीय गणित और समीकरणों से ही तय होगा। हालांकि, प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी ने अपने नए समीकरणों (40 मुस्लिम + 70 अति पिछड़ा उम्मीदवार) की घोषणा करके चुनावी मुकाबले को निश्चित रूप से दिलचस्प बना दिया है। पीके के लिए इस विधानसभा चुनाव में खोना कुछ नहीं है, पर पाने के लिए एक बड़ा राजनीतिक मंच है, जिसकी वजह से बिहार की चुनावी हवा में एक नई अनिश्चितता की स्थिति पैदा हो गई है।