
– आचार्य संतोष
हिंदू धर्म में चित्रगुप्त जी को ज्ञान, न्याय और धर्म के अधिष्ठाता के रूप में माना जाता है। उन्हें मुख्य रूप से कायस्थ जाति का कुलदेवता माना जाता है और मृत्यु के समय मनुष्यों के अच्छे-बुरे कर्मों का लेखा-जोखा रखने वाले देवता के रूप में पूजा जाता है। पुराणों के अनुसार, जब पृथ्वी पर धर्म और न्याय का पालन कमजोर होने लगा, तब ब्रह्मा जी ने सोचा कि एक ऐसा देवता होना चाहिए जो मानवों के कर्मों का सही लेखा-जोखा रख सके। इसी उद्देश्य से ब्रह्मा जी ने अपनी दिव्य शक्ति से चित्रगुप्त जी का निर्माण किया। उन्हें चित्रगुप्त इसलिए कहा गया क्योंकि वे सभी कर्मों को ‘चित्र’ की तरह स्पष्ट रूप में लिखते हैं और उसे ‘गुप्त’ रखते हैं।
चित्रगुप्त जी का मुख्य कार्य मानवों के कर्मों का लेखा-जोखा रखना और मृत्यु के समय यमराज को उसका निर्णय प्रस्तुत करना है। वे सत्य और न्याय के प्रतीक माने जाते हैं और उनके पास लेखनी और पटल होता है, जिस पर प्रत्येक व्यक्ति के कर्मों का विवरण लिखा जाता है। पुराणों में वर्णित है कि चित्रगुप्त जी ब्रह्मा जी के आदेश से कर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं और समाज में ईमानदारी, न्याय और धर्म का आदर्श स्थापित करते हैं। उनका महत्व केवल मृत्युपरांत कर्मों के निर्णय तक सीमित नहीं है, बल्कि वे मानवों के लिए नैतिक और आध्यात्मिक मार्गदर्शक भी हैं।
भगवान् चित्रगुप्त का उद्भव और कार्य
एक बार यमराज ने ब्रह्मलोक में जाकर ब्रह्माजी से कहा कि उन्हें चारों ओर प्रजा पर शासन करना कठिन लग रहा है। ब्रह्मा ने निर्देश दिया कि शीघ्र एक पुरुष प्रकट होगा, जो इस कार्य को निभा सके।
इसके बाद ब्रह्मा के शरीर से उत्पन्न हुए चित्रगुप्त, जो श्यामवर्ण, कमलनयन, हाथ में कलम-पट्टी और दावात धारण किए हुए थे। ब्रह्मा ने उन्हें यमलोक भेजा और आदेश दिया कि वे सभी प्राणियों का भाग्य लिखें।
“चित्तात् उत्पन्नो यस्मात् स चित्रगुप्त इति स्मृतः।”
(ब्रह्म वैवर्त पुराण, ब्रह्म खंड 13.7)
अर्थात — जो ब्रह्मा जी के चित्त से उत्पन्न हुए, वे चित्रगुप्त कहलाए।
चित्रगुप्त ने उज्जयनी के तट पर तपस्या की। ब्रह्मा ने यज्ञ संपन्न किया और उनकी विवाह योग्य कन्याओं से 12 पुत्र उत्पन्न हुए। भगवान् ब्रह्मा ने कहा कि ये सभी पुत्र सदाचारी, बुद्धिमान और धर्म के अनुयायी होंगे।

कायस्थ कौन हैं?
पुराणों के अनुसार सृष्टि की रचना और उसका नियंत्रण सुनिश्चित करने के लिए भगवान् ब्रह्मा ने हजार वर्षों की तपस्या की। इसी तपस्या के फलस्वरूप उनकी काया से भगवान् कायस्थ, जिन्हें चित्रगुप्त भी कहा जाता है, उत्पन्न हुए। इन्हें धर्माधिकार प्राप्त था कि वे यमलोक में सभी प्राणियों के भाग्य लिखें और न्याय का संचालन करें।
चित्रगुप्त का विवाह कश्यप ऋषि के पौत्र वैवस्वत मनु की चार पुत्रियों और नागों (नागर ब्राह्मणों) की आठ ऋषिपुत्रियों से हुआ। इन बारह कन्याओं से उत्पन्न द्वादश देवपुत्र ही चित्रगुप्तवंशीय द्वादश कायस्थ माने जाते हैं।
स्वर्ग से इन देवपुत्रों को भगवान् ब्रह्मा एवं माता सावित्री (सरस्वती) ने मृत्युलोक भेजकर ऋषियों के पास संस्कारित किया। इन महान ऋषियों में मांडव्य, गौतम, श्रीहर्ष, हारित, वाल्मीकि, वसिष्ठ, सौभरि, दालभ्य, हंस, भट्ट, सौरभ और माथुर शामिल थे।
चित्रगुप्तवंशीय द्वादश कायस्थ और गौड ब्राह्मण
चित्रगुप्तवंशीय द्वादश कायस्थों में प्रत्येक पुत्र को एक ऋषि के पास शिक्षा के लिए भेजा गया और उनके अनुसार वे अपनी-अपनी शाखाओं में गुरु और शिष्य बनकर गौडब्राह्मण के रूप में प्रतिष्ठित हुए।
- निगम – यह पुत्र मांडव्य ऋषि से शिक्षित हुआ और मांडव्य गोत्रीय कायस्थ के रूप में मालवा क्षेत्र में प्रतिष्ठित हुआ। इन्हें वेदों का ज्ञाता माना गया और वे गुरु के रूप में महत्त्वपूर्ण हुए।
- गौड – गौतम ऋषि से शिक्षा प्राप्त कर यह पुत्र गौतम गोत्रीय कायस्थ के रूप में स्थापित हुआ। ये तपोनिष्ठ और गुरु के रूप में विख्यात हुए।
- श्रीवास्तव – श्रीहर्ष ऋषि से शिक्षित होकर श्रीहर्ष गोत्रीय कायस्थ के रूप में उत्पन्न हुए। ये देवी त्रिपुरसुंदरी षोडषी के उपासक माने जाते हैं।
- कुलश्रेष्ठ – हारित ऋषि से शिक्षित होकर हारीत गोत्रीय कायस्थ के रूप में प्रतिष्ठित हुए। इन्हें माताकाली के सशक्त साधक माना जाता है।
- वाल्मीकि – वाल्मीकि ऋषि से शिक्षा प्राप्त कर वाल्मीकि गोत्रीय कायस्थ बन गए। ये गुरु और यज्ञकर्ता के रूप में विख्यात हुए।
- अस्थाना – वसिष्ठ ऋषि से शिक्षित होकर वसिष्ठ गोत्रीय कायस्थ के रूप में स्थापित हुए। ये माता काली के अनन्य भक्त माने जाते हैं और अस्थाना नाम से प्रसिद्ध हैं।
- सौरभ – सौभरि ऋषि से शिक्षा लेकर सौरभ गोत्रीय कायस्थ के रूप में प्रतिष्ठित हुए। ये माता अम्बा के भक्त थे और इन्हें अम्बष्ट कहा जाता है।
- कर्ण – दालभ्य ऋषि से शिक्षित होकर दालभ्य गोत्रीय कायस्थ बने। ये मूलतः दक्षिण भारत, बंगाल, बिहार, उड़ीसा और अन्य क्षेत्रों में फैले। इन्हें कर्ण ब्रह्मकायस्थ भी कहा जाता है।
- सुखसेन – हंस ऋषि से शिक्षा प्राप्त कर हंस गोत्रीय कायस्थ हुए। ये तेजस्वी, यज्ञकर्ता और सुख देने वाले माने गए। इन्हें सक्सेना भी कहा जाता है।
- भट्टनागर – भट्ट ऋषि से शिक्षित होकर भट्ट गोत्रीय कायस्थ बने। ये गुरु के रूप में विख्यात हुए।
- सूर्यध्वज – सौरभ ऋषि से शिक्षा प्राप्त कर सूर्यध्वज गोत्रीय कायस्थ बने। ये सूर्य के सशक्त साधक माने जाते हैं।
- माथुर – माथुर ऋषि से शिक्षित होकर माथुर गोत्रीय कायस्थ स्थापित हुए। ये अपने क्षेत्रों में गुरु और विद्वान के रूप में प्रसिद्ध हुए।
इन सभी ब्राह्मणों का धर्म, वेद, शाखा और संस्कार समान हैं। केवल ‘कुल’ का भेद है – ब्रह्म कायस्थ ‘देवकुल से’ और शेष ब्राह्मण ‘ऋषिकुल से’ उत्पन्न हुए।
धार्मिक और सांस्कृतिक विशेषताएँ
- ब्रह्मकायस्थ गौडब्राह्मण शैव मार्ग के अनुयायी हैं।
- वे शिव और शक्ति (दुर्गा, काली) के परम भक्त रहे हैं।
- मांस और मदिरा का सेवन कुछ शाखाओं में प्रचलित था, जो शिव-शक्ति साधना का हिस्सा माना जाता है।
- कायस्थों का धर्म न्याय करना, प्रजा में कानून और व्यवस्था बनाए रखना है।
चित्रगुप्तवंशीय द्वादश कायस्थ गौडब्राह्मणों का उद्भव और उनका शिक्षा-संस्कार पद्मपुराण (उत्तरखण्ड) में स्पष्ट रूप से वर्णित है। ये सभी ब्राह्मण अपनी-अपनी शाखाओं में विद्वान, धर्मनिष्ठ और यज्ञकर्म में पारंगत रहे। उनके गोत्र, देवता, वेद और संस्कार सभी समान हैं; केवल कुल के आधार पर भेद है।
चित्रगुप्त देव में वर्गों का विभाजन: धर्म, न्याय और कर्म के संरक्षक
हिंदू धर्म में चित्रगुप्त जी को मुख्य रूप से कर्म और न्याय के देवता माना जाता है। उनके श्रमिक और प्रशासनिक कार्य के कारण समाज में उनके प्रति विशेष सम्मान है। पुराणों और धर्मग्रंथों में वर्णित है कि चित्रगुप्त जी के अनुयायियों और उनके पूजन में भाग लेने वाले लोग मुख्य रूप से कायस्थ जाति से संबंध रखते हैं, लेकिन उनके प्रभाव को समाज के अन्य वर्गों से भी जोड़ा गया है। ऐतिहासिक और पुराणिक ग्रंथों के अनुसार, चित्रगुप्त जी के पूजन और सेवा में चार प्रमुख वर्ग या विभाग देखे जा सकते हैं, जो उनके कार्य और समाज में भूमिका के आधार पर बनाए गए हैं।
पहला वर्ग है लेखक और प्रशासनिक वर्ग, जो सीधे उनके कर्म लेखन और न्यायिक कार्य से जुड़ा है। यह वर्ग उनके पटल और लेखनी के माध्यम से मानवों के कर्मों का लेखा-जोखा रखने का कार्य करता है। दूसरा वर्ग है धार्मिक और पूजापाठ वर्ग, जो चित्रगुप्त जी की पूजा, विधि और मंत्रों का पालन करता है और समाज में धर्म के आदर्श स्थापित करता है। तीसरा वर्ग है शिक्षक और मार्गदर्शक वर्ग, जो समाज को नैतिक शिक्षा और कर्मयोग का संदेश देता है, ताकि लोग धर्म और न्याय के मार्ग पर चलें। चौथा और अंतिम वर्ग है सामाजिक न्याय और सेवा वर्ग, जो समाज में ईमानदारी, न्याय और सेवा कार्यों के माध्यम से उनके आदर्शों को जीवित रखता है।
मसिभाजन (कलम-दवात) का वैदिक अर्थ
चित्रगुप्त पूजन में जो सबसे प्रमुख कर्म है, वह है मसिभाजन अर्थात कलम और दवात का पूजन।
“मसि” का अर्थ है शुद्ध काजल (स्याही) और “भाजन” का अर्थ पात्र या दवात। यह केवल लेखनी का पूजन नहीं, बल्कि ज्ञान, धर्म और सत्य की आराधना है।
मसिभाजन मंत्र (चित्रगुप्त पूजन विधि से):
“मसिभाजनं नमामि त्वां लेखनं कर्मसाक्षिणम्।
धर्मराजसुतं वन्दे चित्रगुप्तं नमोऽस्तु ते॥”
अर्थात — हे मसि और लेखनी! तुम्हें नमन है, क्योंकि तुम धर्मराज के पुत्र चित्रगुप्त की साक्षी हो, जो मनुष्यों के सभी कर्मों का लेखा रखते हैं।
इस पूजन में नई बही, कलम, दवात, लेखनी को पवित्र जल से स्नान कराकर स्थापित किया जाता है।
फिर चित्रगुप्त देव की आराधना करते हुए निम्न मंत्र का जप किया जाता है —
“ॐ चित्रगुप्ताय नमः।
धर्मराज सचिवं देवं चित्रगुप्तं नमाम्यहम्॥”

कलम रखने और उठाने की दिव्य कथा
कायस्थ समुदाय में दीपावली के बाद परेवा (अर्थात भाई दूज) के दिन तक कलम का प्रयोग न करने की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। इसके पीछे एक रोचक कथा है। कहा जाता है कि जब भगवान राम रावण-वध के बाद अयोध्या लौटे, तब उनके राजतिलक की तैयारी प्रारंभ हुई। राजा भरत ने गुरु वशिष्ठ को आदेश दिया कि सभी देवी-देवताओं को निमंत्रण भेजा जाए। गुरु वशिष्ठ ने अपने शिष्यों को यह कार्य सौंपा, परंतु भूलवश भगवान चित्रगुप्त को निमंत्रण नहीं भेजा गया।
जब भगवान राम ने देखा कि सभी देवता आ गए हैं, किंतु चित्रगुप्त देव नहीं, तो उन्होंने कारण पूछा। पता चलने पर उन्हें गहरा दुःख हुआ। उधर चित्रगुप्त देव ने यह जान लिया था कि उन्हें आमंत्रित नहीं किया गया। वे इस घटना को अवमानना मानते हुए अत्यंत खिन्न हुए और उन्होंने अपनी कलम और दवात रख दी — अर्थात सभी प्राणियों के कर्मों का लेखा-जोखा लिखना बंद कर दिया। परिणामस्वरूप स्वर्ग और नरक के समस्त कार्य ठप पड़ गए। किसी आत्मा को यह तय कर पाना असंभव हो गया कि कौन स्वर्ग जाएगा और कौन नरक।
जब देवताओं ने यह स्थिति देखी, तो गुरु वशिष्ठ को अपनी भूल का एहसास हुआ। भगवान राम ने स्वयं अयोध्या में स्थित श्री धर्महरि मंदिर (जहाँ भगवान विष्णु द्वारा चित्रगुप्त की प्रतिमा स्थापित है) जाकर चित्रगुप्त देव से क्षमायाचना की। प्रभु श्रीराम और गुरु वशिष्ठ की प्रार्थना सुनकर भगवान चित्रगुप्त ने लगभग चार पहर (एक पूरा दिवस) के पश्चात पुनः कलम उठाई और कर्म-लेखा का कार्य आरंभ किया।
तभी से परंपरा बनी कि कायस्थ दीपावली की पूजा के पश्चात कलम रख देते हैं और यम द्वितीया (भाई दूज) के दिन कलम-दवात की विधिवत पूजा करके ही उसे पुनः धारण करते हैं। यह परंपरा केवल कर्म का प्रतीक नहीं, बल्कि ज्ञान और न्याय की मर्यादा का भी संदेश देती है।
भगवान राम ने कहा —
“त्वं धर्मस्य लेखकः साक्षी, सर्वकर्माणि तवाधीनम्।
मया सहितं पुनः कुरु लोकहितं कलमादिनम्॥”
चित्रगुप्त देव ने लगभग चार पहर (एक दिन) बाद कलम-दवात का पूजन कर पुनः कार्य आरंभ किया।
तभी से परंपरा बनी कि कायस्थ दीपावली की रात कलम रख देते हैं और भाई दूज (यम द्वितीया) के दिन पुनः उसे पूजन कर धारण करते हैं।
कायस्थों को ब्राह्मणों से दान लेने का अधिकार
यह कथा केवल श्रद्धा का नहीं, बल्कि धर्म में एक ऐतिहासिक परिवर्तन का प्रतीक भी बनी। जब गुरु वशिष्ठ ने चित्रगुप्त से क्षमा माँगी, तो उन्होंने उनके ज्ञान और धर्म-शक्ति को स्वीकार किया।
भगवान श्रीराम ने घोषणा की —
“ब्राह्मणोऽपि यदा दाने न विधिः तव वर्जनम्।
चित्रगुप्तवंशजा नित्यं सर्वदानस्य पात्रकाः॥”
(श्री अयोध्या महात्म्य, धर्महरि अध्याय)
अर्थात — जब ब्राह्मण सबको दान देने के अधिकारी हैं, तब चित्रगुप्तवंश (कायस्थ) स्वयं उन दानों के अधिकारी हैं, जिन्हें ब्राह्मण भी दे सकते हैं।
कायस्थों को यह अधिकार इसलिए मिला क्योंकि चित्रगुप्त देव ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं — अतः वे स्वयं ब्रह्मत्व के अधिकारी हैं।
ब्राह्मण वेदों के ज्ञाता हैं, किंतु चित्रगुप्त देव धर्म और कर्म दोनों के निर्णायक हैं।
इसलिए पुराणों में कहा गया —
“कायस्थाः कर्मविचारज्ञाः ब्रह्मबुद्ध्याः प्रतिष्ठिताः।
तस्माद् दानं ब्राह्मणानां तेभ्यः शास्त्रेऽनुज्ञायते॥”
(पद्म पुराण, उत्तर खंड)
अर्थात — जो कर्म-विवेचन में पारंगत हैं और ब्रह्म-ज्ञान में स्थित हैं, वे कायस्थ हैं; अतः उन्हें ब्राह्मणों से दान लेने का अधिकार धर्मशास्त्रों द्वारा स्वीकृत है।
पूजन के लाभ और कर्मफल
इस दिन भाई-बहन के स्नेह और आशीर्वाद का आदान-प्रदान परिवार में प्रेम, दीर्घायु और सुरक्षा का भाव लाता है। वहीं चित्रगुप्त पूजा व्यक्ति के जीवन में सत्य, न्याय, कर्मशीलता और विवेक का प्रकाश फैलाती है। यह दिन व्यक्ति को अपने पिछले कर्मों का आत्ममंथन करने और आगे सद्कर्म की दिशा में अग्रसर होने का प्रेरणादायी अवसर प्रदान करता है।
चित्रगुप्त पूजा से मनुष्य में लेखन-कला, ज्ञान, बुद्धि और निर्णय क्षमता की वृद्धि होती है। यह दिन कर्म-समीक्षा और आत्मशुद्धि का अवसर प्रदान करता है। भाई दूज पर बहन का तिलक भाई की रक्षा करता है, और चित्रगुप्त पूजा व्यक्ति को मोक्ष मार्ग की दिशा में अग्रसर करती है।
वेदों में कर्म का सिद्धांत स्पष्ट कहा गया है —
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।” (भगवद्गीता 2.47)
अर्थात — कर्म ही तुम्हारा अधिकार है; फल की चिंता मत करो।
चित्रगुप्त देव इसी कर्म-नीति के संरक्षक हैं।
इस दिन तुलसी पर दीपदान करने से लक्ष्मी का वास स्थायी होता है, लेखनी और दवात की पूजा से ज्ञान-वृद्धि होती है, गाय को गुड़ खिलाने से पितृदोष मिटता है, और “ॐ चित्रगुप्ताय नमः” मंत्र का जप करने से नकारात्मकता दूर होती है। गरीबों को पुस्तक, कलम या भोजन दान करने से न केवल पुण्य बढ़ता है बल्कि जीवन में स्थायी शांति और मोक्ष का मार्ग भी खुलता है।
भाई दूज और चित्रगुप्त पूजा केवल धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि जीवन-दर्शन है। भाई दूज स्नेह का प्रतीक है तो चित्रगुप्त पूजा कर्म और न्याय की चेतना का। भगवान चित्रगुप्त की कथा यह सिखाती है कि ज्ञान और धर्म का संतुलन ही सच्ची समृद्धि और मोक्ष का मार्ग है। कायस्थ समुदाय को ब्राह्मणों से दान लेने का जो अधिकार प्राप्त है, वह उनके कर्म, विद्या और धर्मनिष्ठा की श्रेष्ठता का प्रमाण है — और यही भारतीय संस्कृति की वह गहराई है जहाँ ज्ञान ही सर्वोच्च धर्म है।
कायस्थ समाज को ब्राह्मणों से दान लेने का अधिकार कोई अहंकार नहीं, बल्कि ब्रह्मज्ञान और धर्मसेवा की मान्यता है।
यह पर्व हमें सिखाता है कि जब कर्म धर्मानुसार और संबंध प्रेमानुसार हों, तभी जीवन में समृद्धि, शांति और मोक्ष का संगम होता है।
“नित्यं लेखनशीलस्य चित्रगुप्तस्य पूजनम्।
सर्वपापहरं पुण्यं धनाय दीर्घाय चायुषे॥”
(चित्रगुप्त संहिता)
अर्थात — जो व्यक्ति प्रतिवर्ष चित्रगुप्त देव की पूजा करता है, वह सभी पापों से मुक्त होता है और उसे धन, दीर्घायु तथा विद्या का आशीर्वाद प्राप्त होता है।
मसीभाजन संयुक्तश्चरसि त्वम् ! महीतले |
लेखनी कटिनीहस्त चित्रगुप्त नमोस्तुते ||
चित्रगुप्त ! मस्तुभ्यं लेखकाक्षरदायकं l
कायस्थजातिमासाद्य चित्रगुप्त ! नामोअस्तुते ||
हे चित्रगुप्त! आप पृथ्वी पर मसि-भाजन (कलम और दवात) को धारण करके विचरण करते हैं। आपकी जय हो।
हे चित्रगुप्त! आप कलम और अक्षरों के दाता हैं। कायस्थ जाति से उत्पन्न हुए हे चित्रगुप्त! मैं आपको नमन करता हूँ।
– आचार्य संतोष
(ज्योतिष विशारद एवं वास्तु आचार्य)
(वेदांत साधक एवं भारतीय संस्कृति के प्रचारक)
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