आचार्य संतोष : ज्योतिष एवं वास्तु विशेषज्ञ
“सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः।”
जीवन सागर की तरह है — जहाँ लहरें उठती भी हैं, और थमती भी हैं। कभी यह लहरें सुख बनकर हमें ऊपर उठाती हैं, तो कभी दुःख बनकर नीचे खींच लेती हैं। किन्तु यह भूलना नहीं चाहिए कि समुद्र स्वयं शांत रहता है, लहरें केवल उसकी सतह पर खेलती हैं। मनुष्य का मन भी ऐसा ही है — यदि हम सतह की लहरों से एकाकार हो जाएँ, तो हर सुख-दुःख हमें डुबो देता है।
पर यदि हम भीतर उतरें, तो वहीं शांति का अथाह सागर है।
सुख की अति-चाह: मोह का मृगमरीचिका
मनुष्य की सबसे बड़ी भूल यह है कि वह सुख को स्थायी मान बैठता है। वह सोचता है — “थोड़ा और पा लूँ, तो मैं सदा सुखी रहूँगा।” पर सुख एक मृगमरीचिका की तरह है — जितना पास जाने की कोशिश करो, उतना ही दूर जाता है।
हमारा मन जब किसी सुख में अत्यधिक रमता है, तो वह उसी पर आसक्त हो जाता है।
और जब वह सुख चला जाता है — जैसा कि हर अनुभव को जाना ही होता है — तो मन शून्यता में गिर पड़ता है।
यही शून्यता दुःख का रूप ले लेती है।
भगवान बुद्ध ने कहा था —
“तृष्णा दुःख का मूल है।”
— अर्थात्, सुख की लालसा ही दुःख का कारण बनती है।
यह तृष्णा केवल भौतिक वस्तुओं की नहीं, बल्कि भावनात्मक और मानसिक सुख की भी हो सकती है — किसी की प्रशंसा की लालसा, किसी संबंध का मोह, किसी आदर्श स्थिति का स्वप्न। जब मन इन सबमें बंध जाता है, तो स्वतंत्रता समाप्त हो जाती है।और जहाँ स्वतंत्रता नहीं, वहाँ शांति नहीं।
सुख-दुःख: एक ही वृक्ष की दो शाखाएँ
सुख और दुःख दो विरोधी नहीं, बल्कि एक ही वृक्ष की दो शाखाएँ हैं। एक बिना दूसरे की अनुभूति संभव ही नहीं। यदि हमें कभी दुःख न मिला होता, तो हम सुख का मूल्य क्या जानते?
उपनिषद् कहते हैं —
“यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिता:”
— जब हृदय के सब कामनाएँ शांत हो जाती हैं, तभी आत्मा सुखी होती है।
अर्थात्, सुख बाह्य परिस्थितियों का परिणाम नहीं, बल्कि अंतःकरण की अवस्था है।
जिसने दुःख को स्वीकार कर लिया, वही सच्चे सुख को पहचान सकता है।
तटस्थता: जीवन की सबसे बड़ी साधना
तटस्थता का अर्थ यह नहीं कि हम भावशून्य हो जाएँ। यह तो वह स्थिति है जहाँ व्यक्ति सुख और दुःख दोनों को समान दृष्टि से देखता है — न सुख आने पर उछलता है, न दुःख आने पर टूटता है।
गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं —
“समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।”
— जो सुख-दुःख में समान रहता है, वही अमरत्व के योग्य होता है।
तटस्थ भाव का अभ्यास धीरे-धीरे होता है — जब हम जीवन के उतार-चढ़ाव को अनुभव करते हुए यह समझते हैं कि कुछ भी स्थायी नहीं है। यह समझ ही धीरे-धीरे हमारे भीतर एक अद्भुत शांति भर देती है — जैसे तूफ़ान के बीच भी किसी गहरे कुएँ में जल स्थिर रहता है।
आधुनिक जीवन में तटस्थता की आवश्यकता
आज का युग भोग और प्रतिस्पर्धा का युग है।
हर कोई “ज़्यादा पाने” की दौड़ में है — ज़्यादा पैसा, ज़्यादा प्रतिष्ठा, ज़्यादा आनंद।
लेकिन जितना अधिक पाने की लालसा बढ़ती है, उतनी ही अशांति भीतर घर करती है।
अगर हम थोड़ी देर ठहरकर अपने भीतर झाँकें, तो पाएँगे कि हमें बाहरी वस्तुएँ नहीं, मन की स्थिरता चाहिए।
यही स्थिरता तटस्थ भाव से आती है। तटस्थता का अर्थ यह है — “मैं हर परिस्थिति में स्वयं से जुड़ा रहूँ।” तब बाहरी परिवर्तन हमें नहीं हिला पाते।
उपसंहार
जीवन न सुखमय है, न दुःखमय — वह केवल अनुभवमय है।
सुख की चाह हमें भविष्य में भटकाती है, दुःख की स्मृति हमें अतीत में बाँधती है।
और तटस्थता हमें वर्तमान में स्थिर करती है — जहाँ शांति, संतोष और आनंद सब विद्यमान हैं।
इसलिए कहा गया —
“सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः।”
— सब सुखी हों, सब निरोग हों।
पर यह सुख तभी संभव है, जब हम यह समझ लें कि सुख पाने की चाह से नहीं, उसे छोड़ने से सुख मिलता है।
जब मन तटस्थ होता है, तब जीवन न सुख में डूबता है, न दुःख में खोता है — वह केवल प्रकाशित होता है।
– आचार्य संतोष
(ज्योतिष विशारद एवं वास्तु आचार्य)
(वेदांत साधक एवं भारतीय संस्कृति के प्रचारक)
वास्तु शुद्धि और जन्म कुंडली जागरण के लिए
संपर्क संख्या : +91 9934324365 (WhatsApp)
